दो गीत
१.
यादों की बारात
पहुँच आई,
जब ,एकाकीपन के ,
घर -दरवाजे तक,
सपनों की डोली में,
बैठी ,तृष्णाएँ,
वर्तमान संग,विदा हो गयी ।
२.
शहर,
यह कैसे दिन
तुमने
दिखलाए ?
हम सोए ,
पर,
ख्वाब
न आए।
पैसे ,
बिन,जीना है
मुश्किल ।
संबंधों
का , खिलना
मुश्किल ।
भीड़ इतनी,
कि,
अपनों को भी
ढूँढ नहीं पाए ।
भूल हुई ,क्या ?
समझ
न आए ।
घर का ,
भेदी,
लंका
ढाए।
अपनों से,भी,
रहे ,
सदा,हम हरदम भरमाए।
शहर,
यह कैसे दिन ,
तुमने,
दिखलाए ?
-राजेश कुमार सिंह
बन्दर लैम्पंग,
सुमात्रा
( इन्डोनेशिया )
5 Comments:
तीन गीत हो गये.बधाई.
11:46 am
तीन गीत हो गये.बधाई.
11:48 am
कहीं अधिक तो नहीं हुआ ! बधाई के लिए आभार।
3:13 pm
जो खिलाने में और बधाई देने में गिने, उससे जरा सावधान.
12:50 pm
लाखों डालर की सलाह मुफ्त पा कर "कल्पवृक्ष" की धारणा फलीभूत हुई।
हम तो , "धन्य हुए ,धनवान हुए , और अंतत: , सावधान हुए..."
8:14 pm
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