10/01/2004

दो गीत

१.
यादों की बारात
पहुँच आई,
जब ,एकाकीपन के ,
घर -दरवाजे तक,
सपनों की डोली में,
बैठी ,तृष्‍णाएँ,
वर्तमान संग,विदा हो गयी ।

२.
शहर,
यह कैसे दिन
तुमने
दिखलाए ?

हम सोए ,
पर,
ख्‍वाब
न आए।

पैसे ,
बिन,जीना है
मुश्किल ।

संबंधों
का , खिलना
मुश्‍किल ।

भीड़ इतनी,
कि,
अपनों को भी
ढूँढ नहीं पाए ।

भूल हुई ,क्‍या ?
समझ
न आए ।

घर का ,
भेदी,
लंका
ढाए।

अपनों से,भी,
रहे ,
सदा,हम हरदम भरमाए।

शहर,
यह कैसे दिन ,
तुमने,
दिखलाए ?

-राजेश कुमार सिंह
बन्‍दर लैम्‍पंग,
सुमात्रा
( इन्‍डोनेशिया )

5 Comments:

Blogger अनूप शुक्ल said...

तीन गीत हो गये.बधाई.

11:46 am

 
Blogger अनूप शुक्ल said...

तीन गीत हो गये.बधाई.

11:48 am

 
Blogger RAJESH said...

कहीं अधिक तो नहीं हुआ ! बधाई के लिए आभार।

3:13 pm

 
Blogger इंद्र अवस्थी said...

जो खिलाने में और बधाई देने में गिने, उससे जरा सावधान.

12:50 pm

 
Blogger RAJESH said...

लाखों डालर की सलाह मुफ्‍त पा कर "कल्‍पवृक्ष" की धारणा फलीभूत हुई।
हम तो , "धन्‍य हुए ,धनवान हुए , और अंतत: , सावधान हुए..."

8:14 pm

 

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