हम सुधि-बुधि अपनी भूल गए ........
हम , सुधि-बुधि , अपनी , भूल गए,
जीवन में , इतने द्वंद्व रहे।
जड़ , चेतन से , हम दूर हुए ,
जग से , ऐसे सम्बन्ध कटे।
असहाय जिये , निरुपाय रहे,
अपमानों के , कितने दंश सहे।
कण-कण में , बसने वाले को,
तीरथ-तीरथ , पूजने चले।
आकाश असीमित था , लेकिन,
उड़ने पर , अपने , पंख जले ।
इस , सजी-धजी नगरी , में ,आ,
पतझड़ , वसन्त से, दूर चले।
-राजेश कुमार सिंह
बन्दर लैम्पंग,
सुमात्रा,इन्डोनेशिया ।
10 Comments:
राजेश जी,
बड़ी निराशाजनक कविता है लेकिन जिंदगी में ऐसे समय भी आते हैं और ऐसी कविताएं पढ़कर पता नहीं क्यूँ तसल्ली मिलती है।
पंकज
4:56 am
रोने-धोने में ही सुख तलाशने की आदत कब छोड़ेगे, बबुआ!अब तो बड़े बन जाओ.
2:10 pm
शुक्ला जी,
किसे सुधार रहे हो। हम तो कभी कभी बोले हैं।
पंकज
10:41 pm
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7:21 pm
पंकज जी,और गुरुदेव,आप लोगों की मिलती-जुलती प्रतिक्रियाएँ पढ कर,हमें,दुष्यन्त कुमार का एक शेर याद आ गया:
"दुख को बहुत सहेज कर रखना पड़ा हमें,
सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया ।"
प्रतिक्रियाओं के लिए धन्यवाद स्वीकार करें।
राजेश
7:25 pm
राजेश-जी:
कभी बंदर लैंपंग के बारे में कुछ जानकारीपूर्ण लेख लिखें। जानने की बड़ी इच्छा है।
7:53 am
विजय जी,
आप को शायद यह अविश्वसनीय लगे,कि पिछले तीन वर्षों में,जब से मैं यहाँ हूँ,
किसी ने भी , तमाम भिन्नताओं के होने के बावजूद, यहाँ के बारे में जानने की
कोई इच्छा प्रकट नहीं की ।
अब चूँकि,आपने इच्छा प्रकट की है,तो,हमारे लिए यह आदेश भी हुआ।
दो साल पहले,हम जैसे कुछेक लोगों ने,ऐसी ही इच्छा ,सन्युक्त राज्य अमरीका के बारे में
जानने के उद्देश्य से ,पोर्टलैण्ड ,के,एक वरिष्ठ और जान-पहचान के भारतीय मूल के एक सज्जन नागरिक के सामने रक्खी थी,जो,अभी तक,फलीभूत होने का इन्तजार कर रही है।
( श्री इंद्र अवस्थी ध्यान दें ।)
अतएव,मेरी ओर से,(यदपि प्रयास शीघ्र ही,लेख को पूरा करना होगा।) यदि ,यह प्रयास विलम्बित हो,तो,इसे,परम्परा का प्रतीक समझें।
आशा है, मैं यह प्रयास जल्दी ही,आप के सामने ला सकूँगा ।
-राजेश
7:49 pm
hum padhe aur dhyan bhee diya gaya so jaanana!
7:50 am
"बन्दर लैम्पंग" पर लिखे लेख का पहला भाग यहाँ chhayaa पर है।
8:01 pm
बहुत अच्छा लिखा है आपने। भारत में कहां से हैं आप?
1:42 pm
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