हम सुधि-बुधि अपनी भूल गए ........
हम , सुधि-बुधि , अपनी , भूल गए,
जीवन में , इतने द्वंद्व रहे।
जड़ , चेतन से , हम दूर हुए ,
जग से , ऐसे सम्बन्ध कटे।
असहाय जिये , निरुपाय रहे,
अपमानों के , कितने दंश सहे।
कण-कण में , बसने वाले को,
तीरथ-तीरथ , पूजने चले।
आकाश असीमित था , लेकिन,
उड़ने पर , अपने , पंख जले ।
इस , सजी-धजी नगरी , में ,आ,
पतझड़ , वसन्त से, दूर चले।
-राजेश कुमार सिंह
बन्दर लैम्पंग,
सुमात्रा,इन्डोनेशिया ।