10/20/2005
7/30/2005
कुछ इसलियॆ भी …
सॊयॆ हुऒं की ,
जय हुई ,
कुछ इस तरह की , खबर मिली ।
बैठॆ हुए थॆ , हम थकॆ , और ,
हारॆ हुऒं मॆं , जिकर हुई।
कुछ इस तरह सॆ , खबर बनी ।
जॊ दूर थॆ , श्रॊता रहॆ ,
जॊ पास थॆ , दर्शक बनॆ ,
कुछ , इस तरह सॆ , गुजर हुई।
पर्वत सॆ , हम , राई बनॆ ,
राई सॆ , कुछ पर्वत बनॆ ,
यह सॊच - सॊच , गुजारीं रातॆं ,
यह सॊच - सॊच , सहर हुईं ।
सारॆ , सुखॊं की चाह , मॆं ,
मदहॊश सॆ , यौवन मिलॆ ,
दॆखा , दुखॊं की बाढ मॆं ,
बहतॆ हुए , बचपन दिखॆ।
कुछ इसलियॆ भी , नजर झुकी ।
कुछ इसलियॆ , न नजर उठी ।
- राजॆश कुमार सिंह , बंदर लैम्पंग , सुमात्रा , इंडॊनॆशिया ।
6/29/2005
संकल्प
हम जहाँ हैं,
वहीं सॆ ,आगॆ बढॆंगॆ।
हैं अगर यदि भीड़ मॆं भी , हम खड़ॆ तॊ,
है यकीं कि, हम नहीं ,
पीछॆ हटॆंगॆ।
दॆश कॆ , बंजर समय कॆ , बाँझपन मॆं,
या कि , अपनी लालसाओं कॆ,
अंधॆरॆ सघन वन मॆं ,
पंथ , खुद अपना चुनॆंगॆ ।
और यदि हम हैं,
परिस्थितियॊं की तलहटी मॆं,
तॊ ,
वहीं सॆ , बादलॊं कॆ रूप मॆं , ऊपर उठॆंगॆ।
-राजॆश कुमार सिंह
बंदर लैम्पंग,
सुमात्रा,इन्डॊनॆशिया
3/31/2005
हम सुधि-बुधि अपनी भूल गए ........
हम , सुधि-बुधि , अपनी , भूल गए,
जीवन में , इतने द्वंद्व रहे।
जड़ , चेतन से , हम दूर हुए ,
जग से , ऐसे सम्बन्ध कटे।
असहाय जिये , निरुपाय रहे,
अपमानों के , कितने दंश सहे।
कण-कण में , बसने वाले को,
तीरथ-तीरथ , पूजने चले।
आकाश असीमित था , लेकिन,
उड़ने पर , अपने , पंख जले ।
इस , सजी-धजी नगरी , में ,आ,
पतझड़ , वसन्त से, दूर चले।
-राजेश कुमार सिंह
बन्दर लैम्पंग,
सुमात्रा,इन्डोनेशिया ।
1/31/2005
मित्र और शत्रु
मेरे मित्र का मित्र ,
मेरा मित्र हो या नहीं,
मेरे शत्रु का शत्रु ,
मेरा मित्र हो या नहीं,
पर,मेरे मित्र का शत्रु ,
या,मेरे शत्रु का मित्र ,
मेरा मित्र नहीं हो सकता ।
-राजेश कुमार सिंह
बन्दर लैम्पंग (सुमात्रा)
इन्डोनेशिया ।
12/29/2004
कैसे-कैसे समय...
कैसे-कैसे समय गुजारे,
कैसे-कैसे दिन देखे ।
आधे जीते,आधे हारे,
आधी उमर उधार जिये।
आधे तेवर बेचैनी के देखे,
आधे दिखे बीमार के।
प्रश्न नहीं था,तो बस अपना,
चाहत, कभी, नहीं पूजे।
हमने, अपने प्रश्नों के उत्तर,
बस,राम-शलाका में ढूँढे।
कैसे-कैसे नगरों घूमे,
कैसे-कैसे रोज जिये।
प्रतिबन्धों की प्रतिध्वनि थी,
या,प्रतिदिन की प्रतिद्वन्दिता रही।
मन्दिर,मस्जिद,चौराहों पर,
धक्का-मुक्की लगी रही।
कैसी-कैसी रीति निभायी,
कैसे-कैसे काव्य कहे !
-राजेश कुमार सिंह
बन्दर लैम्पंग (सुमात्रा)
इन्डोनेशिया
10/12/2004
भावी जीवन की तैयारी में-----
जब-जब आँखों में,सिंहासन के,
ख्वाब दिखे,हम प्रतिपल-प्रति दिन-रात चले ,
कहने को सत्ता मिली,किन्तु ,
रहने को कारावास मिले ।
सौरभ सुमनों के लिए ,कई बरसों
तक की, हमने बाट तकी,
जब इनको भी, मुरझाते,कुचले जाते देखा,
फिर जाती यह भी आस रही ।
कुछ बात नहीं हम कह पाये,
कुछ बात नहीं हम सह पाये,
कुछ दर्द रह गए सीने में,
कुछ बात रह गयी जीने में।
गंधर्वों के उत्सव में भी,हम,
शामिल थे ,एक पुजारी से,
कुछ मन्त्र पढे , कुछ भूल गये,
भावी जीवन की तैयारी में ।
-राजेश कुमार सिंह
बन्दर लैम्पंग,
सुमात्रा( इन्डोनेशिया )